Monday, November 29, 2010

ईश योग का सत्संग

आस्था चैनल मे ईशयोग का सत्संग सुना था एक दिन ,जो कुछ समझा वह कुछ इसतरह से था कि हम अन्कोंशयस्ली यानि बेहोशी मे जीये जा रहे हैं.जिसमे सुख व दुःख दोनों ही हैं पर हमारा जीवन एक रट का है,बार बार वही घटित होता है उससे कुछ नया करने की अलग करने की हम कोशिश भी नहीं करते क्योंकि डरते हैं .ऐसा जीवन भी गलत तो नहीं है जीवित रहने के लिये, सर्वाइव करने के लिये .असल मे हम कुछ करते कहाँ हैं बस हुआ चला जा रहा है.सिर्फ अन्तर यही है कि हम अंदर ही अंदर असंतुष्ट से रहते हैं,क्योंकि भूल गये हैं कि हमारे अंदर आनन्द है ,हम बाहर की चीजों मे आनद की तलाश करते हैं उसमे दिक्कतें तो आयेंगी ही .तो करें क्या ?
करना बस इतना ही है कि हम अपना सोफ्टवेयर खुद बनायें .जब खुद बनायेंगे तो गलत नहीं बनायेंगे .पहलेसे गलत बना हुआ है और हम उसी के अनुसार चलते जा रहे हैं बेहोशी मे नींद मे.अपने होश से बनायेंअपना सोफ्टवेयर और फिर देखें कैसे चलता है जीवन .अभी तक हमारा जीवन प्लास्टिक के फूल जैसा है हम जी रहे हैं पर उसमे सुगंध नहीं है ,हो भी कैसे ?प्लास्टिक जो है.प्लास्टिक रियल से ज्यादा सर्वाइव करेगा पर उसमे खुशबू कहाँ से आयेगी सो जीवन को असली बनाओ .वह होश मे आने से हो सकता है.असली फूल जल्दी कुम्लाह भी सकता है पर उसकी खुशबू कीमती है.हमारा मन कंडीशंड है उसी को संस्कार भी कहते हैं,उसी को कर्म भी कहते हैं ,उसे होशपूर्वक देखना होगा यानि जागना होगा .अभीतक सब कुछ सोये सोये आटोमेटिक चल रहा है उसे जागकर बदलने की जरूरत है.

Monday, November 22, 2010

नीरू माँ का सत्संग

नीरू माँ के सत्संग में सुना था कि हम जो भी कर रहे हैं सब पहले से व्यवस्थित है .हमारा उठना बैठना चलना फिरना ये सब तो प्रकृति के द्वारा स्वभाववश होता रहता है.
इसके अलावा हमे जो काम करने पड़ते हैं किसी के कहने पर या अपनी इच्छा से प्रेरित होकर ,वे सब कर्मफल हैं.कर्म तो हमारे अंदर के भाव हैं उस भावदशा के अनुसार ही कर्मफल होते हैं अच्छे या बुरे.इसलिए ही कहा जाता है कि अच्छे संस्कार डालो ,अच्छा सोचो.सो हमे जो भी कर्मफल मिल रहा है उसे भोगते हुए अपनी भाव दशा बिगाड़नी नहीं चाहिए .सम रहना चाहिए.क्योंकि तभी हम नया कर्मफल बांधने से बच पायेंगें .
और इसके लिये आसान तरीका तो यही है कि अपने को कर्ता समझें ही नहीं जैसा कि गीता मे बताया गया है कि सब स्वभाव से ही हो रहा है.अपने अहंकार को बीच में मत लायें .अहंकार यानि अपनी मै को बीच में लाने पर ही भाव बनते हैं पुण्य के या पाप के.जब हम कर्ता ही नहीं हैं तो अहंकार का सवाल ही नहीं उठता .

Monday, November 15, 2010

आत्मा का आनन्द

हमारी भूख प्यास ,सर्दी गर्मी प्रकृति के नियम हैं ,इनके हल उसी तरह निकलते रहते हैं जैसे कि पशु पक्षी इन सबका मुकाबला करते हैं.मनुष्य के पास दिमाग है इसलिए अगर वह पक्षियों के समान उड़ नहीं सकता तो उसने हवाई जहाज बना लिये,मछली की तरह तैर नहीं सकता तो नाव बना लीं पानी के जहाज बना लिये .चीते की तरह दौड़ नहीं सकता तो कारें बना लीं .बनाने मे भी आनंद आता है जब भी हम कुछ नया निर्माण करते हैं तो आनन्द होता है.मनुष्य के अंदर से ही नवनिर्माण के विचार आते रहते हैं और वह नवनिर्माण करता रहता है.और पुरानी वस्तुएं नष्ट होती रहती हैं.ये सब आत्मा की शक्ति से होता है.आत्मा डायरेक्ट तौर पर कुछ नहीं करती पर उसके होने से ही सब कुछ होता है.जैसे सूरज के होने से सब होता है.फूलों की खुशबू और कचरे की सड़ान्ध दोनों सूर्य के होने से ही होती हैं पर सूरज पर न तो खुशबू का कोई असर होता है न ही सड़ान्ध का .इसी तरह आत्मा की शक्ति से ही सब होता है अच्छा भी और बुरा भी. पर मेहनत तो इन्सान को करनी ही पड़ती है अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिये.डायरेक्ट रूप से किसी भी भौतिक जरुरत को पूरा करने की मेहनत हमेशा दुखदायी होती है.मेहनत हमेशा ईश्वर के निमित्त बन कर करनी चाहिए.आवश्यकतायें ईश्वर ने ही दी हैं.वही पूरा करता है.और कर भी रहा है.हम अपनी जरूरतों को पूरा करने मे कुछ इस तरह उलझ जाते हैं जैसे कि जरूरतें हमारे लिये नहीं हैं हम उनके लिये हैं.और तब तो हमारे परिश्रम का कोई अंत ही नहीं है.पर अगर ईश्वर के निमित होकर करते हैं तो मेहनत में आनंद मिलता है ,थकावट मे भी आनंद मिलता है.

Sunday, November 7, 2010

तो....

ईश्वर दयालु है ,वह जब हम पर दया करता है तो सुख मिलता है.
पर जब दुश्मन पर दया करता है तो.....
ईश्वर बहुत दानी है जब हम पर दया करता है तो बहुत सुख मिलता है.
पर जब दुश्मन को देता है तो....
ईश्वर क्षमा करनेवाला है ,जब हमारे अपराध क्षमा करता है तो हमें सुख मिलता है .
पर जब दुश्मन के अपराध क्षमा करता है तो....
ईश्वर न्यायकारी है ,जब वह दुश्मन को दंड देता है तो हमे सुख मिलता है.
पर जब हमे दंड देता है तो....
जब हम पाकिस्तान से क्रिकेट में जीतते हैं तो हमे सुख मिलता है
पर जब पाकिस्तान जीतता है तो .....

Monday, November 1, 2010

खुला आकाश हो जैसे

मंदिर मे लगातार घंटी बजाना क्या अर्थ रखता है?या शिवलिंग पर जल चढ़ाना या कोई भी पूजा करने का जो कर्मकांड है,उसका क्या तात्पर्य है?मेरे दिमाग मे जो आ रहा है वह यह है कि हम जो भी करते हैं दिमाग से करते हैं और दिमाग से करने का अर्थ है कि उसमे कोई अर्थ ढूंढना, लोजिक ढूंढना.जब कोई मतलब नहीं मिलता तो दिमाग को संतुष्टी नहीं होती.दिमाग वह करना नहीं चाहता.
तो यही है उस बात का उत्तर कि हम अन्लोजिकल कर्मकांड क्यों करते हैं?इसलिए करते है कि हम अपने दिमाग से बाहर आ जायें.दिमाग की सीमा मे रह कर तो हम वही और वैसा ही सोचेंगे जैसाकि हमारा दिमाग है.कोई कैसा दिमाग रखता है तो कोई कैसा ?दिमाग ही सुख दुःख के बंधन मे डालता है.पर ईश्वर दिमाग से पकड़ मे आने वाला नहीं है. वह दिमाग से परे की बात है.सो दिमाग को एक तरफ रख कर कर्मकांड करना होता है.वह चाहे लगातार राम नाम का जाप हो या जल चढ़ाना हो.दिमाग को बीच मे मत लाओ.
जैसे हमारे रहने का एक घर होता है.पर उसमे लगातार कोई भी नहीं रह सकता.तो हर घर मे एक खुला आंगन ,खुली छत भी होती है..गरीब हों या अमीर सब थोड़ी देर के लिए खुले आकाश में आते ही हैं और आना ही चाहते हैं.कभी कभी साप्ताहिक तौर पर पिकनिक मनाने कुछ घंटों के लिए और कभी कैम्पिंग के लिए कुछ दिनों के लिए भी जाते हैं.यानि हरेक अपनी चारदीवारी से बाहर निकल कर खुशी महसूस करता है.उसी तरह से हमारा दिमाग है जिसमे हम लगातार रहते रहते घुटन महसूस करते हैं.उससे बाहर जाने का रास्ता है रामनाम का जपना .लोजिकल बातों से हटना.जहाँ कमजोर दिमाग श्रेष्ठ दिमाग सब बराबर होते हैं .करके देखो और शांति का अनुभव लो.थोड़ी देर रोज. फिर साप्ताहिक तौर पर कुछ घन्टों के लिए और फिर कुछ दिनों के लिए.क्योंकि ईश्वर दिमाग के अंदर नहीं बाहर है.