भगवान शब्द में पांच अक्षर है -भ ग व आ न -भ है भूमि के लिए ,ग है गगन (आकाश)के लिए व है वायू के लिए ,आ है आग के लिए और न है नीर (पानी)के लिए .तो इस तरह से हम सब भगवान से ही बने हैं .
हमारे शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं और पांच कर्मेन्द्रियाँ .पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ इन पांच तत्वों से कुछ इस तरह से सम्बन्धित हैं जैसे कि भूमि से नाक,आग से आँखें ,हवा से त्वचा ,आकाश से कान और पानी से जीभ .
पाँचों कर्मेन्द्रियाँ इन पाँचों ज्ञानेन्द्रियों की सहायक हैं -मलेन्द्रिय नाक की ,पैर आँखों के ,हाथ त्वचा के ,गला कान का और जननेंद्रिय जीभ की.कैसे?ये आप थोड़ा सोच कर देखें तो पता चल जायगा.
इन पांचो तत्वों में मुख्यतःपांच तरह की विशेषताएं भी हैं,जैसे भूमि में सहनशीलता ,आग में पवित्रता ,हवा में शीतलता आकाश में व्यापकता और पानी में विनम्रता.सो हमारा भी यह सहज स्वभाव होता है कि जब हम सहनशील ,पवित्र,शालीन व्यापक और विनम्र होते हैं तो अपने में आनंद महसूस करते हैं.पर जब असहनशील,अपवित्र ,घमंडी ,संकीर्ण और अकड़ वाले होते हैं तो दुखीः होते हैं.
असहनशीलता का सम्बन्ध नाक से है और नाक का मिट्टी से , तभी तो जब कोई किसी बात को सहन नही कर पाता तो कहते हें कि गुस्सा तो इसकी नाक पर रहता है.अगर हम चाहते हैं कि हमारी नाक पर गुस्सा न रहे तो हमे भूमि की तरह सहनशीलता का गुण अपनाना ही होगा वरना मिट्टी में मिलते देर नही लगेगी ,आकाश की ऊंचाईयां छूने के लिए सहनशील बनना ही होगा.
अपवित्रता का सम्बन्ध आँखों से है और आँखों का आग से.अगर हम चाहते हें कि कोई हमे बुरी नजर वाला न कहे तो हमे आग की तरह पवित्रता का गुण अपनाना ही होगा वरना आग में जल कर नष्ट होते देर नही लगेगी.
घमंड का सम्बन्ध त्वचा से है और त्वचा का हवा से ,अगर हम चाहते हैं कि कोई हमे मोटी चमड़ी वाला न कहे तो हमे हवा की तरह शालीन बनना होगा वरना तो हवा हमें कब तिनके की तरह उड़ा देगी पता भी नही चलेगा.
संकीर्णता का सम्बन्ध कानों से है और कानों का आकाश से .अगर हम चाहते हैं कि हमे कोई कान का कच्चा न कहे तो हमें आकाश की तरह व्यापक द्रष्टिकोण वाला बनना होगा वरना आकाश की व्यापकता में हम कहाँ गुम हो जायेंगें पता भी नही चलेगा.
अकड़ का सम्बन्ध जीभ से है और जीभ का पानी से ,अगर हम चाहते हैं कि हमे कोई लम्बी जबान वाला न कहे तो हमें पानी की तरह विनम्र बनना होगा .वरना चुल्लूभर पानी में डूबकर मरते देर नही लगेगी.
और इन पाँचों तत्वों का प्रतिनिधित्व हमारे हाथ का अंगूठा और चारो उंगलिया भी करती हैं
.अंगूठा आग का ,तर्जिनी ऊँगली हवा का ,बड़ी ऊँगली आकाश का ,उसके साथ वाली अनामिका भूमि का और छोटी ऊँगली पानी का .
इसीलिये आँखों का ,त्वचा का ,कान का ,नाक का या जीभ का कोई रोग हो तो इन्ही पांचो उँगलियों का उसी हिसाब से एक्युप्रेशर करना होता है.
इस तरह से भगवान हमारी हथेली में भी निवास करता है .आशीर्वाद हथेली से ही दिया जाता है.हमारी तकदीर हमारे हाथ में है .ऐसा भी इसी लिए कहते हैं.
हमारे शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं और पांच कर्मेन्द्रियाँ .पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ इन पांच तत्वों से कुछ इस तरह से सम्बन्धित हैं जैसे कि भूमि से नाक,आग से आँखें ,हवा से त्वचा ,आकाश से कान और पानी से जीभ .
पाँचों कर्मेन्द्रियाँ इन पाँचों ज्ञानेन्द्रियों की सहायक हैं -मलेन्द्रिय नाक की ,पैर आँखों के ,हाथ त्वचा के ,गला कान का और जननेंद्रिय जीभ की.कैसे?ये आप थोड़ा सोच कर देखें तो पता चल जायगा.
इन पांचो तत्वों में मुख्यतःपांच तरह की विशेषताएं भी हैं,जैसे भूमि में सहनशीलता ,आग में पवित्रता ,हवा में शीतलता आकाश में व्यापकता और पानी में विनम्रता.सो हमारा भी यह सहज स्वभाव होता है कि जब हम सहनशील ,पवित्र,शालीन व्यापक और विनम्र होते हैं तो अपने में आनंद महसूस करते हैं.पर जब असहनशील,अपवित्र ,घमंडी ,संकीर्ण और अकड़ वाले होते हैं तो दुखीः होते हैं.
असहनशीलता का सम्बन्ध नाक से है और नाक का मिट्टी से , तभी तो जब कोई किसी बात को सहन नही कर पाता तो कहते हें कि गुस्सा तो इसकी नाक पर रहता है.अगर हम चाहते हैं कि हमारी नाक पर गुस्सा न रहे तो हमे भूमि की तरह सहनशीलता का गुण अपनाना ही होगा वरना मिट्टी में मिलते देर नही लगेगी ,आकाश की ऊंचाईयां छूने के लिए सहनशील बनना ही होगा.
अपवित्रता का सम्बन्ध आँखों से है और आँखों का आग से.अगर हम चाहते हें कि कोई हमे बुरी नजर वाला न कहे तो हमे आग की तरह पवित्रता का गुण अपनाना ही होगा वरना आग में जल कर नष्ट होते देर नही लगेगी.
घमंड का सम्बन्ध त्वचा से है और त्वचा का हवा से ,अगर हम चाहते हैं कि कोई हमे मोटी चमड़ी वाला न कहे तो हमे हवा की तरह शालीन बनना होगा वरना तो हवा हमें कब तिनके की तरह उड़ा देगी पता भी नही चलेगा.
संकीर्णता का सम्बन्ध कानों से है और कानों का आकाश से .अगर हम चाहते हैं कि हमे कोई कान का कच्चा न कहे तो हमें आकाश की तरह व्यापक द्रष्टिकोण वाला बनना होगा वरना आकाश की व्यापकता में हम कहाँ गुम हो जायेंगें पता भी नही चलेगा.
अकड़ का सम्बन्ध जीभ से है और जीभ का पानी से ,अगर हम चाहते हैं कि हमे कोई लम्बी जबान वाला न कहे तो हमें पानी की तरह विनम्र बनना होगा .वरना चुल्लूभर पानी में डूबकर मरते देर नही लगेगी.
और इन पाँचों तत्वों का प्रतिनिधित्व हमारे हाथ का अंगूठा और चारो उंगलिया भी करती हैं
.अंगूठा आग का ,तर्जिनी ऊँगली हवा का ,बड़ी ऊँगली आकाश का ,उसके साथ वाली अनामिका भूमि का और छोटी ऊँगली पानी का .
इसीलिये आँखों का ,त्वचा का ,कान का ,नाक का या जीभ का कोई रोग हो तो इन्ही पांचो उँगलियों का उसी हिसाब से एक्युप्रेशर करना होता है.
इस तरह से भगवान हमारी हथेली में भी निवास करता है .आशीर्वाद हथेली से ही दिया जाता है.हमारी तकदीर हमारे हाथ में है .ऐसा भी इसी लिए कहते हैं.