हम क्यों जी रहें हैं?किसके पास है इसका जवाब?
जो भी जी रहा है वह किसी सुख की तलाश में है.सुख नजर आता है भौतिक सुविधाओं में.और साथ ही यह भी दिखता है कि जिनके पास भौतिक सुविधाएँ हैं उन्हें भी सुख की तलाश है आनन्दित वे भी नजर नही आते .क्योंकि अपना ही भरोसा नही है कि कब तक हैं फिर ये सारा तम-झाम सारी मेहनत किसलिए .
मन को अगर कुछ चुभता है तो तन को सुख देने वाली किसी चीज में कोई अर्थ नही दिखता.
पर इस मन की खुशी मे हमारी बुद्धि ही अड़ंगे डालती रहती है बुद्धि हमेशा ही कुछ न कुछ कहती रहती है कि ये तूने ठीक किया ये गलत किया , ऐसे करो वैसे करो .जिनकी बुद्धि ज्यादा तेज होती है उतना ज्यादा उसे उलझा देती है.कम बुद्धि वाला वैसे ही कुछ कर नही पाता और अगर बुद्धिबल से कोई अपने को खुश कर भी देता है तो उसका अभिमान उसे दूसरों से अलग -थलग कर देता है .अपने को वह कुछ समझने लगता है पर अलग- थलग पड़ते ही सब खाली -खाली लगने लगता है सब कुछ व्यर्थ सा लगने लगता है तो आखिर इंसान करे क्या ? एक ही प्रश्न बार बार सामने आता है कि हम जीते क्यों हैं?तो इसका उत्तर तो किसी की भी बुद्धि से पकड़ में नही आता ऐसे उत्तर बुद्धि की पकड़ के बाहर हैं.
बुद्धि इतना जरूर सोच सकती है कि अगर जीवन रसमय हो आनंद से भरा हो तो फिर कोई फर्क नही पड़ता कि उत्तर मिले या न मिले .दुःख में ही तो इंसान पूछता है कि आखिर हम हैं क्यों? सुख में तो और भी लम्बी उमर की कामना की जाती है .
तो अब बात यही रह जाती है कि हम अपने सुख को ,आनंद को टिकाएँ कैसे ?
हम देखते हैं कि सांसारिक रूप से कई तरह के कष्टों के आने के बावजूद भी कुछ मनुष्य ऐसे होते हैं जो अपना आपा नही खोते -हमेशा अपना संतुलन बनाये रखते हैं और तमाम लोग उनका अनुसरण करते हैं उन जैसा होना चाहते हैं. वे गिनती के लोग हैं उन्हें मनुष्य नही ईश्वर का दर्जा दे दिया जाता है जैसे राम ,कृष्ण, बुद्ध ,ईसा ,गुरु नानक .पर क्या इन सब की तुलना आपस में की जा सकती है .ये सब एक दूसरे से भिन्न थे .इनका जीने का ढंग एक सा तो था नही सो अब और कोई राम -कृष्ण कैसे हो सकते है ?
हमारे जीवन की जैसी परिस्तिथि होती है उसी में हमे संतुलन बनाना होगा ताकि हम जीवन- धारा से अलग थलग न पड़ जायें .बुद्धि हमे दूर तक साथ नही देती क्योंकि बुद्धि का प्रकाश उसका अपना प्रकाश नही है इसलिये वह बहुत सीमित है. हमे प्रकाश के उस स्रोत तक पहुंचना होगा जिससे बुद्धि को प्रकाश मिलता है जब हम उस स्रोत तक जाते हैं तो पता चलता है कि हमसब तो उसके निमित्त हैं पूरा संसार उसके निमित्त है .हमे लगता है कि हम कुछ कर रहें हैं पर कहाँ ?हम तो निमित्त बनकर जी रहे हैं .
सीधी सीबात है -कोई मेरे लिये अनाज उगाता है ,कोई सब्जी उगाता है, कोई कपड़े बनाता है, कोई घर बनाता है. कोई दवा बनाता है ,कोई कार बनाता है. मेरे जीवित रहने के लिय कितनी सारी भौतिक सामग्री की जरूरत है ,क्या मैं अकेले सब बना सकती हूँ यहाँ हरेक एक दूसरे का निमित्त बनकर काम कर रहा है .और यह हरेक है कौन ?अगर उसमे से परमात्मा का प्रकाश निकल जाये तो बचा क्या ?यानि देखा जाये तो परमात्मा ही परमात्मा के लिये कर रहा है. उसीने तो स्वयं एक को अनेक में तब्दील कर दिया है तो फिर अनेक परमात्मा दुःख क्यों प्राप्त करते हैं?
यही तो खेल है उसका जिस दिन दुःख निकल गया, संसार खत्म हो जायेगा जिसे पता चल गया कि संसार तो खेल है वह फिर दुखी नही होता ,आनंद में ही रहता है. ईश्वर के निमित्त होकर सब काम करता है .हरेक की स्तिथि के अनुसार हरेक के हिस्से में कुछ काम आते ही हैं सो अपना - अपना काम करो,औरआनंद मे रहो.
जो भी जी रहा है वह किसी सुख की तलाश में है.सुख नजर आता है भौतिक सुविधाओं में.और साथ ही यह भी दिखता है कि जिनके पास भौतिक सुविधाएँ हैं उन्हें भी सुख की तलाश है आनन्दित वे भी नजर नही आते .क्योंकि अपना ही भरोसा नही है कि कब तक हैं फिर ये सारा तम-झाम सारी मेहनत किसलिए .
मन को अगर कुछ चुभता है तो तन को सुख देने वाली किसी चीज में कोई अर्थ नही दिखता.
पर इस मन की खुशी मे हमारी बुद्धि ही अड़ंगे डालती रहती है बुद्धि हमेशा ही कुछ न कुछ कहती रहती है कि ये तूने ठीक किया ये गलत किया , ऐसे करो वैसे करो .जिनकी बुद्धि ज्यादा तेज होती है उतना ज्यादा उसे उलझा देती है.कम बुद्धि वाला वैसे ही कुछ कर नही पाता और अगर बुद्धिबल से कोई अपने को खुश कर भी देता है तो उसका अभिमान उसे दूसरों से अलग -थलग कर देता है .अपने को वह कुछ समझने लगता है पर अलग- थलग पड़ते ही सब खाली -खाली लगने लगता है सब कुछ व्यर्थ सा लगने लगता है तो आखिर इंसान करे क्या ? एक ही प्रश्न बार बार सामने आता है कि हम जीते क्यों हैं?तो इसका उत्तर तो किसी की भी बुद्धि से पकड़ में नही आता ऐसे उत्तर बुद्धि की पकड़ के बाहर हैं.
बुद्धि इतना जरूर सोच सकती है कि अगर जीवन रसमय हो आनंद से भरा हो तो फिर कोई फर्क नही पड़ता कि उत्तर मिले या न मिले .दुःख में ही तो इंसान पूछता है कि आखिर हम हैं क्यों? सुख में तो और भी लम्बी उमर की कामना की जाती है .
तो अब बात यही रह जाती है कि हम अपने सुख को ,आनंद को टिकाएँ कैसे ?
हम देखते हैं कि सांसारिक रूप से कई तरह के कष्टों के आने के बावजूद भी कुछ मनुष्य ऐसे होते हैं जो अपना आपा नही खोते -हमेशा अपना संतुलन बनाये रखते हैं और तमाम लोग उनका अनुसरण करते हैं उन जैसा होना चाहते हैं. वे गिनती के लोग हैं उन्हें मनुष्य नही ईश्वर का दर्जा दे दिया जाता है जैसे राम ,कृष्ण, बुद्ध ,ईसा ,गुरु नानक .पर क्या इन सब की तुलना आपस में की जा सकती है .ये सब एक दूसरे से भिन्न थे .इनका जीने का ढंग एक सा तो था नही सो अब और कोई राम -कृष्ण कैसे हो सकते है ?
हमारे जीवन की जैसी परिस्तिथि होती है उसी में हमे संतुलन बनाना होगा ताकि हम जीवन- धारा से अलग थलग न पड़ जायें .बुद्धि हमे दूर तक साथ नही देती क्योंकि बुद्धि का प्रकाश उसका अपना प्रकाश नही है इसलिये वह बहुत सीमित है. हमे प्रकाश के उस स्रोत तक पहुंचना होगा जिससे बुद्धि को प्रकाश मिलता है जब हम उस स्रोत तक जाते हैं तो पता चलता है कि हमसब तो उसके निमित्त हैं पूरा संसार उसके निमित्त है .हमे लगता है कि हम कुछ कर रहें हैं पर कहाँ ?हम तो निमित्त बनकर जी रहे हैं .
सीधी सीबात है -कोई मेरे लिये अनाज उगाता है ,कोई सब्जी उगाता है, कोई कपड़े बनाता है, कोई घर बनाता है. कोई दवा बनाता है ,कोई कार बनाता है. मेरे जीवित रहने के लिय कितनी सारी भौतिक सामग्री की जरूरत है ,क्या मैं अकेले सब बना सकती हूँ यहाँ हरेक एक दूसरे का निमित्त बनकर काम कर रहा है .और यह हरेक है कौन ?अगर उसमे से परमात्मा का प्रकाश निकल जाये तो बचा क्या ?यानि देखा जाये तो परमात्मा ही परमात्मा के लिये कर रहा है. उसीने तो स्वयं एक को अनेक में तब्दील कर दिया है तो फिर अनेक परमात्मा दुःख क्यों प्राप्त करते हैं?
यही तो खेल है उसका जिस दिन दुःख निकल गया, संसार खत्म हो जायेगा जिसे पता चल गया कि संसार तो खेल है वह फिर दुखी नही होता ,आनंद में ही रहता है. ईश्वर के निमित्त होकर सब काम करता है .हरेक की स्तिथि के अनुसार हरेक के हिस्से में कुछ काम आते ही हैं सो अपना - अपना काम करो,औरआनंद मे रहो.