सुबह आँख खुलते ही ख्याल आया कि मैं देख रही हूँ अपनेआपको कि उठने में आलस आरहा है .मन में कुछ इसतरह से विचारप्रक्रिया चली कि उठो या न उठो ,मुझे तो कुछ फर्क नही पड़ता .मैं तो सम्पूर्ण हूँ जल्दी उठने या देर से उठने से मुझे तो कोई फर्क पड़ने वाला है नही पर तुम्हारा ही चेहरा लटक जायेगा कि आज भी ठीक से योगा नही कर पाई देर से उठनेकी वजह से .ठीकसे योगा करना शरीर को तन्दरुस्त रखने के लिए जरूरी है.शरीर अस्वस्थ रहा तो रोजमर्रा के काम ठीकसे नही हो पायेगें,तो भई मेरा काम तो देखना है ,मैं तो देख रही हूँ कि तुम उठने में आलस कर रही हो फिर परेशानी में पड़ोगी तो वह भी देख लूँगी और हंसी आयेगी तुमपर कि चाहती कुछ हो और करती कुछ हो.सर्दी,गर्मी बारिश, धूप-छाँव ,रोशनी-अँधेरा इन सबका प्रभाव तुम्हारे शरीर पर पड़ता है तो उसकेलिए क्या सावधानी करनी चाहिए सब पता है.मैं तो साक्षीभाव से देख रही हूँ .तुम्हे पूरी आजादी है सोई रहो देरतक ,मुझे क्या लेनादेना .और फिर मैं लेटी न रह सकी उठ ही गई.
वाह ! बहुत प्रेरणादायक पोस्ट! साक्षीभाव में ऐसा ही होता है... भीतर बैठा साक्षी देखता है लेकिन मुझे लगता है कि हंसी उसे नहीं आती यह देखकर कि हम चाहते कुछ और हैं करते कुछ और... वह तो दया, करुणा, प्रेम का सागर है... चुपचाप देखता है, वह तर्क वितर्क भी नहीं करता, वह सब काम बुद्धि का है... वही हंसती है और वही समझाती है.
ReplyDeleteवाकई साक्षीभाव की उपस्तिथि में बुद्धि अपना काम ठीक ठीक करती है,वरना तो बुद्धि भी सो जाती.
ReplyDeleteशुक्रवार --चर्चा मंच :
ReplyDeleteचर्चा में खर्चा नहीं, घूमो चर्चा - मंच ||
रचना प्यारी आपकी, परखें प्यारे पञ्च ||
श्रेष्ठ रचनाओं में से एक ||
ReplyDeleteबधाई ||