Tuesday, November 22, 2011

ध्यान



ईश्वर निराकार है पर उसकी समझ हमें आकार से ही मिलती है.आकाश निराकार है पर उस पर सूरज चाँद सितारे बादल अपने अपने आकार में नजर आतें हैं.उससे ही हमें निराकार का बोध होता है.
उसी तरह उस निराकार आकाश में निराकार चेतन शक्ति भी है.उसी चेतन शक्ति से तो सूरज चाँद सितारे बादल टिके हुए हैं.वही चेतन शक्ति वही आकाश हमारे भीतर और बाहर है. गुब्बारे से गैस निकल जाये तो वह उड़ नहीं सकता ,इसी तरह हमारे भीतर के आकाश से भी अगर चेतन शक्ति निकल जाये तो हम निर्जीव हो जाते हैं.
ध्यान में हम उसी चेतन शक्ति को महसूस करतें है,जो हमारे सिर से लेकर पैर के अंगूठे तक फैली हुई है.उसको महसूस करते करते हम उस सम्पूर्ण चेतन शक्ति से जुड़ने लग जाते हैं जो हमारे बाहर भी है और हम सबके भीतर भी है

Friday, November 4, 2011

सोहनी का बचपन-भाग (१)


 सोहनी का  पहला अनुभव चार साल की उमर में चोट का- हाथ में मेहंदी लगा कर सुखाने के लिए गोल गोल तेजी से घूम रही थी ,और किसी से टक्कर खाकर गिरी ,माथे में लोहे की साबुनदानी चुभ गई जिसका निशान अभीतक है.
पहला दुखद अनुभव स्कूल का( भद्दा मजाक )जब सोहनी पांच साल की थी ,मास्टर(जी  ?)ने जानबूझ कर उसकी तख्ती के ऊपर( जिस पर अ आ इ ई उ ऊ लिख रही थी )साईकिल चला दी थी ,उसके पहिये से सारी लिखाई खराब हो गई थी.
पहला अनुभव स्टेज का -छह साल की उमर में स्कूल की स्टेज पर सुनाई थी यह कविता .
जिसने सूरज चाँद बनाया,जिसने तारों को चमकाया.
जिसने चिड़ियों को चहकाया ,जिसने सारा जगत बनाया.
हम उस ईश्वर के गुण गायें,उसे प्रेम से शीश झुकायें.
कक्षा के हर बच्चे को कुछ न कुछ सुनाना जरूरी था .यह कविता स्कूल की हिन्दी की किताब में थी, सुनाते समय वह बहुत नर्वस थी ,जल्दी-जल्दी बोल गई.
पहला झूठ सात साल की उमर में -स्कूल न जाने के लिए मम्मी को बोल दिया कि आज तो स्कूल में छुट्टी है .पर स्कूल से दायीं माँ लेने आ गई .वह  छुप गई पलंग के नीचे पर झूठ तो पकड़ा गया था .




Thursday, October 6, 2011

सूर्पनखा


राम को पता है कि उन्हें रावण से युद्ध करना है ,सीता को छुड़ाना है.
रावण को पता है कि उसे भी युद्ध करना है ,उसे समझाने वाले सब हैं कि वह गलत कर रहा है पर वह समझना ही नही चाहता राम को युद्ध न करने के लिए कोई नही कहता ,उन्हें तो सब सहयोग देते हैं,सीता को छुडाने के लिए युद्ध तो करना ही पड़ेगा.इसलिये उन्होंने युद्ध किया और विजय प्राप्त की.सबका आशीर्वाद उनके साथ था.
रावण के साथ दिल से कोई भी नही था .
हमारा आपका जीवन किस तरह से अलग है ?हमारे साथ भी अन्याय होता है,पर हम राम नही हैं ,न ही हमारे साथ अन्याय करने वाला रावण है .
हम बस इतना जानते हैं कि हमारे साथ अन्याय हो रहा है.तो क्या हम सूर्पनखा हैं .
लगता तो ऐसा ही है क्योंकि हम भी अपने मतलब के लिए लोगों से मीठी बातें करते हैं और जब मतलब पूरा नही होता तो अपना असली रूप दिखाते हैं.
जब सूर्पनखा अपने असली भयंकर रूप में आयी तभी लक्ष्मण ने उसके नाक कान काटे .(और वो अपने खिलाफ हुए इस अन्याय की शिकायत लेकर अपने भाई रावण के पास पहुंच गई.)
हम सब भी तो भीतर से भयंकर रूप वाले हैं,सामने -सामने मिठास से भरे हैं.राम बाहर भीतर एक से ही थे .

Monday, October 3, 2011

श्रद्धा क्यों जरूरी है.

हमारी आँखे हैं इसलिये हमें जब दिखाई देता है कि सामने कांटे हैं तो हम बच कर निकलते हैं.असावधानीवश अगर कांटा चुभ भी जाये तो उसे निकाल देते हैं क्योंकि हमे दिख रहा है कि कहाँ चुभा है.पर जो अंधे हैं उन्हें तो कोई आंखवाला ही रास्ता दिखायेगा न .या उन्हें खास ट्रेनिंग लेनी पड़ेगी कि किस तरह से कंटीले रास्तों से बच कर निकल सकते हैं.
और वैसेभी जिनकी आँखें हैं वह स्वाभाविक तौर पर उस व्यक्ति की मदद करने लग जाता है जिसे दिखाई नही पड़ रहा है.
इसीतरह आँखें शरीर की ही नही मन की भी होती हैं पर अधिकतर लोगों की आँखें बंद ही रहती हैं कुछ ही हैं जो अपनी आंखें खुली रखते हैं और उनकी यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि बाकी के मनुष्य भी अपनी बंद आँखों को खोलें ,साफ-साफ देखें कि कहाँ-कहाँ से उनके दिल में कांटे चुभ रहे हैं.कैसे उन काँटों से बचें और जो चुभ चुके हैं कैसे उन्हें निकालें .
इसीतरह सामने अगर हीरे पड़े हों तो अंधा तो उन्हें कंकड़ ही समझेगा न .आंखवाले पर श्रद्धा होगी तभी हीरे इकट्ठे करेगा महात्माओं की बातें हीरे की तरह मूल्यवान होती हैं पर मन के अंधे मनुष्य श्रद्धा न होने से उन्हें बकवास समझते हैं और भीतर से गरीब के गरीब ही बने रहते हैं.

Tuesday, September 20, 2011

शरीर को देखें जरा नए ढंग से

भगवान शब्द में पांच   अक्षर है -भ ग व आ न -भ है भूमि के लिए ,ग है  गगन (आकाश)के लिए व है वायू के लिए ,आ है आग  के लिए और न है नीर  (पानी)के लिए .तो इस तरह से हम सब भगवान से ही बने हैं .
हमारे शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं और पांच कर्मेन्द्रियाँ .पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ इन पांच तत्वों से कुछ इस तरह से सम्बन्धित हैं जैसे कि भूमि से नाक,आग से आँखें ,हवा से त्वचा ,आकाश से कान और पानी से जीभ .
पाँचों कर्मेन्द्रियाँ इन पाँचों ज्ञानेन्द्रियों की सहायक हैं -मलेन्द्रिय  नाक की ,पैर आँखों के ,हाथ  त्वचा के ,गला  कान का और जननेंद्रिय  जीभ की.कैसे?ये आप थोड़ा सोच कर देखें  तो पता चल जायगा.
इन पांचो तत्वों में मुख्यतःपांच तरह की विशेषताएं भी हैं,जैसे भूमि में सहनशीलता ,आग में पवित्रता ,हवा में शीतलता आकाश में व्यापकता और पानी में विनम्रता.सो हमारा भी यह सहज स्वभाव होता है कि जब हम सहनशील ,पवित्र,शालीन व्यापक और विनम्र होते हैं तो अपने में आनंद महसूस करते हैं.पर जब असहनशील,अपवित्र ,घमंडी ,संकीर्ण और अकड़ वाले होते हैं तो दुखीः होते हैं.
असहनशीलता का सम्बन्ध नाक से है और नाक का मिट्टी से , तभी तो जब कोई किसी बात को सहन नही कर पाता तो कहते हें कि गुस्सा तो इसकी नाक पर रहता है.अगर हम चाहते हैं कि हमारी नाक पर गुस्सा न रहे तो हमे भूमि की तरह सहनशीलता का गुण अपनाना ही होगा वरना मिट्टी में मिलते देर नही लगेगी ,आकाश की ऊंचाईयां छूने के लिए सहनशील बनना ही होगा.
अपवित्रता का सम्बन्ध आँखों से है और आँखों का आग से.अगर हम चाहते हें कि कोई हमे बुरी नजर वाला न कहे तो हमे आग की तरह पवित्रता का गुण अपनाना ही होगा वरना आग में जल कर नष्ट होते देर नही लगेगी.
घमंड का सम्बन्ध त्वचा से है और त्वचा का हवा से ,अगर हम चाहते हैं कि कोई हमे मोटी चमड़ी वाला न कहे तो हमे हवा की तरह शालीन बनना होगा वरना तो हवा हमें कब तिनके की तरह उड़ा देगी पता भी नही चलेगा.
संकीर्णता का सम्बन्ध कानों से है और कानों का आकाश से .अगर हम चाहते हैं कि हमे कोई कान का कच्चा न कहे तो हमें आकाश की तरह व्यापक द्रष्टिकोण वाला बनना होगा वरना आकाश की व्यापकता में हम कहाँ गुम हो जायेंगें पता भी नही चलेगा.
अकड़ का सम्बन्ध जीभ से है और जीभ का पानी से ,अगर हम चाहते हैं कि हमे कोई लम्बी जबान वाला न कहे तो हमें पानी की तरह विनम्र बनना होगा .वरना चुल्लूभर पानी में डूबकर मरते देर नही लगेगी.
और इन पाँचों तत्वों का प्रतिनिधित्व हमारे हाथ का अंगूठा और चारो उंगलिया भी करती हैं 
.अंगूठा आग का ,तर्जिनी ऊँगली हवा का ,बड़ी ऊँगली आकाश का ,उसके साथ वाली अनामिका भूमि का और छोटी ऊँगली पानी का .
इसीलिये आँखों का ,त्वचा का ,कान का ,नाक का या जीभ का कोई रोग हो तो इन्ही पांचो उँगलियों का उसी हिसाब से एक्युप्रेशर करना होता है.
इस तरह से भगवान हमारी हथेली में भी निवास करता है .आशीर्वाद हथेली से ही दिया जाता है.हमारी तकदीर हमारे हाथ में है .ऐसा भी इसी लिए कहते हैं.






Thursday, September 8, 2011

अवेयरनेस और इगो

अवेयरनेस क्या है ?इगो क्या है ?टी.वी.पर कनुप्रिया और ब्रह्मकुमारी शिवानी की बातचीत में और अच्छी तरह समझा .
अवेयरनेस का मतलब है कि जो भी हमारे भीतर चल रहा है हर वक्त उसपर नजर रहे.
इसी को द्रष्टा भाव में रहना कहते हैं ,पहले भी सीखा है कि साक्षी भाव में रहो.
इगो का मतलब है कि अपनी गलत पहचान को अपनी असली पहचान समझना . जैसे कि कोई डॉक्टर है ,उसके डाक्टरी के काम में कोई रुकावट आ जाये और वह परेशान हो जाये कि अब तो वह गया ,सब कुछ समाप्त हो गया.
पर डॉक्टर होना तो उसका एक रोल प्ले है .डॉक्टर का रोल प्ले करना है उसे, पर वैसे तो वह एक शुद्ध आत्मा है .डॉक्टरी के बारे में सब कुछ भूल कर भी असल में वह जो है ,वह तो हमेशा से ही है.उसे अपने असली रूप के बारे में हमेशा अवेयर रहना होगा तभी कोई भी रोल प्ले आसानी से शांत मन से कर सकेगा .रोल प्ले भी दिल से होना चाहिए,सिर्फ एक्टिंग की तरह नही और ऐसा तभी हो सकता है जब हम देखते रहें कि कैसे क्या कर रहे हैं.

Wednesday, August 24, 2011

साक्षीभाव

सुबह आँख खुलते ही ख्याल आया कि मैं देख रही हूँ अपनेआपको कि उठने में आलस आरहा है .मन में कुछ इसतरह से विचारप्रक्रिया चली कि उठो या न उठो ,मुझे तो कुछ फर्क नही पड़ता .मैं तो सम्पूर्ण हूँ जल्दी उठने या देर से उठने से मुझे तो कोई फर्क पड़ने वाला है नही पर तुम्हारा ही चेहरा लटक जायेगा कि आज भी ठीक से योगा नही कर पाई देर से उठनेकी वजह से .ठीकसे योगा करना शरीर को तन्दरुस्त रखने के लिए जरूरी है.शरीर अस्वस्थ रहा तो रोजमर्रा के काम ठीकसे नही हो पायेगें,तो भई मेरा काम तो देखना है ,मैं तो देख रही हूँ कि तुम उठने में आलस कर रही हो फिर परेशानी में पड़ोगी तो वह भी देख लूँगी और हंसी आयेगी तुमपर कि चाहती कुछ हो और करती कुछ हो.सर्दी,गर्मी बारिश, धूप-छाँव ,रोशनी-अँधेरा इन सबका प्रभाव तुम्हारे शरीर पर पड़ता है तो उसकेलिए क्या सावधानी करनी चाहिए सब पता है.मैं तो साक्षीभाव से देख रही हूँ .तुम्हे पूरी आजादी है सोई रहो देरतक ,मुझे क्या लेनादेना .और फिर मैं लेटी न रह सकी उठ ही गई.