Tuesday, September 20, 2011

शरीर को देखें जरा नए ढंग से

भगवान शब्द में पांच   अक्षर है -भ ग व आ न -भ है भूमि के लिए ,ग है  गगन (आकाश)के लिए व है वायू के लिए ,आ है आग  के लिए और न है नीर  (पानी)के लिए .तो इस तरह से हम सब भगवान से ही बने हैं .
हमारे शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं और पांच कर्मेन्द्रियाँ .पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ इन पांच तत्वों से कुछ इस तरह से सम्बन्धित हैं जैसे कि भूमि से नाक,आग से आँखें ,हवा से त्वचा ,आकाश से कान और पानी से जीभ .
पाँचों कर्मेन्द्रियाँ इन पाँचों ज्ञानेन्द्रियों की सहायक हैं -मलेन्द्रिय  नाक की ,पैर आँखों के ,हाथ  त्वचा के ,गला  कान का और जननेंद्रिय  जीभ की.कैसे?ये आप थोड़ा सोच कर देखें  तो पता चल जायगा.
इन पांचो तत्वों में मुख्यतःपांच तरह की विशेषताएं भी हैं,जैसे भूमि में सहनशीलता ,आग में पवित्रता ,हवा में शीतलता आकाश में व्यापकता और पानी में विनम्रता.सो हमारा भी यह सहज स्वभाव होता है कि जब हम सहनशील ,पवित्र,शालीन व्यापक और विनम्र होते हैं तो अपने में आनंद महसूस करते हैं.पर जब असहनशील,अपवित्र ,घमंडी ,संकीर्ण और अकड़ वाले होते हैं तो दुखीः होते हैं.
असहनशीलता का सम्बन्ध नाक से है और नाक का मिट्टी से , तभी तो जब कोई किसी बात को सहन नही कर पाता तो कहते हें कि गुस्सा तो इसकी नाक पर रहता है.अगर हम चाहते हैं कि हमारी नाक पर गुस्सा न रहे तो हमे भूमि की तरह सहनशीलता का गुण अपनाना ही होगा वरना मिट्टी में मिलते देर नही लगेगी ,आकाश की ऊंचाईयां छूने के लिए सहनशील बनना ही होगा.
अपवित्रता का सम्बन्ध आँखों से है और आँखों का आग से.अगर हम चाहते हें कि कोई हमे बुरी नजर वाला न कहे तो हमे आग की तरह पवित्रता का गुण अपनाना ही होगा वरना आग में जल कर नष्ट होते देर नही लगेगी.
घमंड का सम्बन्ध त्वचा से है और त्वचा का हवा से ,अगर हम चाहते हैं कि कोई हमे मोटी चमड़ी वाला न कहे तो हमे हवा की तरह शालीन बनना होगा वरना तो हवा हमें कब तिनके की तरह उड़ा देगी पता भी नही चलेगा.
संकीर्णता का सम्बन्ध कानों से है और कानों का आकाश से .अगर हम चाहते हैं कि हमे कोई कान का कच्चा न कहे तो हमें आकाश की तरह व्यापक द्रष्टिकोण वाला बनना होगा वरना आकाश की व्यापकता में हम कहाँ गुम हो जायेंगें पता भी नही चलेगा.
अकड़ का सम्बन्ध जीभ से है और जीभ का पानी से ,अगर हम चाहते हैं कि हमे कोई लम्बी जबान वाला न कहे तो हमें पानी की तरह विनम्र बनना होगा .वरना चुल्लूभर पानी में डूबकर मरते देर नही लगेगी.
और इन पाँचों तत्वों का प्रतिनिधित्व हमारे हाथ का अंगूठा और चारो उंगलिया भी करती हैं 
.अंगूठा आग का ,तर्जिनी ऊँगली हवा का ,बड़ी ऊँगली आकाश का ,उसके साथ वाली अनामिका भूमि का और छोटी ऊँगली पानी का .
इसीलिये आँखों का ,त्वचा का ,कान का ,नाक का या जीभ का कोई रोग हो तो इन्ही पांचो उँगलियों का उसी हिसाब से एक्युप्रेशर करना होता है.
इस तरह से भगवान हमारी हथेली में भी निवास करता है .आशीर्वाद हथेली से ही दिया जाता है.हमारी तकदीर हमारे हाथ में है .ऐसा भी इसी लिए कहते हैं.






Thursday, September 8, 2011

अवेयरनेस और इगो

अवेयरनेस क्या है ?इगो क्या है ?टी.वी.पर कनुप्रिया और ब्रह्मकुमारी शिवानी की बातचीत में और अच्छी तरह समझा .
अवेयरनेस का मतलब है कि जो भी हमारे भीतर चल रहा है हर वक्त उसपर नजर रहे.
इसी को द्रष्टा भाव में रहना कहते हैं ,पहले भी सीखा है कि साक्षी भाव में रहो.
इगो का मतलब है कि अपनी गलत पहचान को अपनी असली पहचान समझना . जैसे कि कोई डॉक्टर है ,उसके डाक्टरी के काम में कोई रुकावट आ जाये और वह परेशान हो जाये कि अब तो वह गया ,सब कुछ समाप्त हो गया.
पर डॉक्टर होना तो उसका एक रोल प्ले है .डॉक्टर का रोल प्ले करना है उसे, पर वैसे तो वह एक शुद्ध आत्मा है .डॉक्टरी के बारे में सब कुछ भूल कर भी असल में वह जो है ,वह तो हमेशा से ही है.उसे अपने असली रूप के बारे में हमेशा अवेयर रहना होगा तभी कोई भी रोल प्ले आसानी से शांत मन से कर सकेगा .रोल प्ले भी दिल से होना चाहिए,सिर्फ एक्टिंग की तरह नही और ऐसा तभी हो सकता है जब हम देखते रहें कि कैसे क्या कर रहे हैं.

Wednesday, August 24, 2011

साक्षीभाव

सुबह आँख खुलते ही ख्याल आया कि मैं देख रही हूँ अपनेआपको कि उठने में आलस आरहा है .मन में कुछ इसतरह से विचारप्रक्रिया चली कि उठो या न उठो ,मुझे तो कुछ फर्क नही पड़ता .मैं तो सम्पूर्ण हूँ जल्दी उठने या देर से उठने से मुझे तो कोई फर्क पड़ने वाला है नही पर तुम्हारा ही चेहरा लटक जायेगा कि आज भी ठीक से योगा नही कर पाई देर से उठनेकी वजह से .ठीकसे योगा करना शरीर को तन्दरुस्त रखने के लिए जरूरी है.शरीर अस्वस्थ रहा तो रोजमर्रा के काम ठीकसे नही हो पायेगें,तो भई मेरा काम तो देखना है ,मैं तो देख रही हूँ कि तुम उठने में आलस कर रही हो फिर परेशानी में पड़ोगी तो वह भी देख लूँगी और हंसी आयेगी तुमपर कि चाहती कुछ हो और करती कुछ हो.सर्दी,गर्मी बारिश, धूप-छाँव ,रोशनी-अँधेरा इन सबका प्रभाव तुम्हारे शरीर पर पड़ता है तो उसकेलिए क्या सावधानी करनी चाहिए सब पता है.मैं तो साक्षीभाव से देख रही हूँ .तुम्हे पूरी आजादी है सोई रहो देरतक ,मुझे क्या लेनादेना .और फिर मैं लेटी न रह सकी उठ ही गई.

Wednesday, July 27, 2011

कसौटी



हमारा भौतिक संसार परमात्मा का ही स्थूल रूप है.और इस संसार में हमारा जो आपसी व्यवहार है,हमारी जो इच्छायें,कामनायें हैं ,राग-द्वेष है ,वह सब स्वप्न के संसार से ज्यादा स्थाई नही है.जैसे स्वप्न में हम बेसिरपैर के अनुभव से गुजरते हैं ठीक वैसा ही जाग्रत अवस्था का संसार भी है क्योंकि असल में हम जाग्रत होते ही कहाँ हैं सिर्फ लगता है कि जगे हुए हैं.कुछ बनने के कुछ होने के नशे में डूबे हुए ही तो रहते हैं हम सब.सारी लड़ाईयां,सारे वाद-विवाद उसी कुछ होने के ,अपने को सिद्ध करने की आकांक्षा से ही तो उपजते हैं .जो व्यक्ति जगा हुआ है उसे पता है कि जो है सो है,कुछ और बनने की चेष्टा किसलिए ?
तो हर समय जाग्रत रहने के लिए मैने समय -समय पर कई सिद्धांतों का सहारा लिया.
पहला सिद्धांत जो याद आता है ,वह यह है कि -यह भी बीत जायेगा .यानि जब भी मन किसी समस्या से दो चार हुआ तो यह कह कर उसे सहारा दिया कि यह भी बीत जायेगा ,कोई भी समस्या हमेशा नही रहती ,परेशान होना छोड़ो और आगे बढ़ो .आगे तो बढ़ गई पर मन में यह आता रहा कि ऐसा कब होगा जब कोई समस्या आये ही न .
इसलिए दूसरा सिद्धांत लिया कि ईश्वर की मर्जी के बिना पत्ता भी नही हिल सकता .तो फिर सोचना क्या ?सारी समस्याओं का कारण और हल दोनों ईश्वर ही तो है .पर जिस तरह पहला सिद्धांत हमेशा मन को संतुष्ट नही रख सका उसी तरह सब कुछ ईश्वर को सौंप देने से भी बात नही बनी .कुछ सही न होने पर मन अपनी जिम्मेदारी ले लेता है और फिर परेशान होता है .तो फिर तीसरा सिद्धांत लिया कि पल -पल जियो ,पुराना अगला भूलो यानि भूत-भविष्य के चक्कर में न पड़ो,वर्तमान में रहो .
पर क्या आसान है इतना!मन तो पल में कहाँ-कहाँ दौड़ जाता है उसे वर्तमान में टिकाएँ कैसे .टिकना तो उसका स्वभाव ही नही है ,उसका धर्म ही नही है ,हमेशा गति में रहना ही तो उसका लक्षण है,-रुका और खत्म हुआ .तो वर्तमान में रहना ,पल -पल जीना भी इतना सरल नही है .
फिर चौथा सिद्धांत लिया -साक्षीभाव में रहो .मतलब जो भी सोचो.करो उसकी गवाह रहो जैसेकि अब मै यह सब इस लैपटॉप पर लिख रही हूँ तो यह तो लिखा हुआ एक दिन खत्म हो जायेगा ,लेपटोप भी नही रहेगा , ,पर मेरा वह स्वरूप तो हमेशा रहेगा जिसपर यह लिखपाने या न लिखपाने का खेल चल रहा है, जिसे पता है किएक समय ऐसा भी था कि जब लिखना आता ही नही था ,और आगे भविष्य में क्या कुछ लिखने वाली हूँ या सब कुछ भूल जाऊँगी.फिर भी जिसे यह पता है कि जो गवाह है ,साक्षी है ,वह तो हमेशा रहने वाली है .और यह सिद्धांत तो महा सिद्धांत निकला क्योकि जब हर समय साक्षी बन कर नजर रखी तो हरपल पर ध्यान तो स्वाभाविक होने लगा और जब हरपल पर ध्यान रहने लगा तो पाया कि सच ही तो ईश्वर की मर्जी के बिना कहाँ कुछ हो सकता है .जब इस बात को माना तो पाया कि पहला सिद्धन्त भी कसौटी पर खरा उतरता है कि यह भी बीत जायेगा क्योंकि हरपल बीतता हुआ ही नजर आ रहा है .
इसलिये हरसमय साक्षीभाव रखना है बस .ये है महामंत्र या महासिद्धांत ,कुछ भी नाम दे दूँ.

Sunday, July 24, 2011

सबका धर्म एक -ओशो

ओशो के सत्संग में सुना कि धर्म तो एक ही है जैसे कि ईश्वर एक है पर नाम अलग अलग हैं.इसी तरह कोई जैन तो कोई बुद्ध तो कोई मुसलमान तो कोई ईसाई हो सकता है पर जरूरी नही कि वह धार्मिक भी हो.धार्मिक तो वही होता है जो धर्म का पालन करता है.हिंदू ,मुस्लिम, सिख, ईसाई होने से ही कोई धार्मिक नही हो जाता .
जैसे स्वास्थ्य एक है पर बिमारियाँ अलग- अलग हैं .उसी तरह धर्म तो एक ही है.हिंदू मुस्लिम होने पर हम अलग अलग कर्मकांडों का पालन कर सकते हैं पर धार्मिक मनुष्यों के मन की स्तिथि एक जैसी होती है.जैसे शांत मनुष्य सब भीतर से एक सा ही महसूस करते हैं.अशांति के कारण अलग -अलग हो सकते हैं
तभी तो सत-चित्- आनंद एक ही है .खुशी विभिन्न तरीकों से मिल सकती है पर उससे मिलने वाला आनंद एक जैसा ही होता है.भीतर से सबका धर्म एक हैं.   

Sunday, July 17, 2011

स्वस्थ यानि स्वयं में अस्थ

हम स्वस्थ कब होते हैं जब अपने में अस्थ होते हैं .वह इस तरह कि आमतौर पर हम या तो खाने के पदार्थों में अपने को उलझाये रखते हैं या पहनने की चीजों में या रहने की जगहों में यानि हर वक्त कुछ पाने की लालसा में रहते हैं,अपने में अस्थ कम ही होते हैं उसी के लिए ध्यान में बैठने की सलाह दी जाती है,कम से कम तब तो अपने में अस्थ होंगे हालाँकि वह भी बहुत मुश्किल होता है क्योंकि मन टिकता कहाँ है?
हम जब तक प्रकृति में उलझे रहेंगे तब तक स्वस्थ नही हो सकते और प्रकृति का ही दूसरा नाम माया है.यही है ईश्वर की शक्ति जो अपना काम बड़े चुपचाप ढंग से करती रहती है.पर हम चाहते हैं कि हमारे ढंग से करे.क्यों करे वह हमारे ढंग से.उसे हमे ही नही देखना है,अरबों की संख्या में हैं उसके बच्चे.वह चुपचाप उन्हें जन्म देते पालती पोसती रहती है और पुराना होने पर उन्हें बदलती रहती है.,हम खामखाह अपनी मर्जी बीच में लाते हैं .
सर्दी लग रही है .लगेगी ही.चादर ओढ़ लो ,धूप में बैठ जाओ.हीटर आन कर लो.गर्मी लग रही है,सूती कपड़े पहनो,ढीले पहनो.पंखा चला लो .नहो लो.प्रकृति हमे इतनी ठंड क्यों दे रही है .इतनी गर्मी क्यों दे रही है,अरे तभी तो पता चलता है कि बसंत ऋतु क्या होती है . गर्मी देती है तभी तो ठंडे पानी का सुख ले सकते हैं.ठंड देती है तभी तो बर्फ के खेलों का आनंद ले सकते हैं .उन सबसे परेशान होना छोड़ें, वे सब तो केवल शरीर पर ही असर डालते हैं,और उनको सह कर ही वह मजबूत बनता है ,तभी तो लोग जिम जाकर पसीना निकालते हैं .सर्दी गर्मी से अपने शरीर को मजबूत बनाएँ.हम शरीर से अलग रहकर शरीर का उपभोग करने वाले हैं न कि स्वयं शरीर हैं .इसलिए स्वस्थ होकर यानि अपने में बैठकर ध्यान से देखें कि यह शरीर हमे कैसे नचा रहा है.अब हम इसे नाच नचाएं यानि खुद इसके मालिक बनें .

Friday, July 1, 2011

एक और सत्संग

नीरू माँ के सत्संग से मन में अपने आप ही चिंतन मनन शुरू हो जाता है.इस समय जो मन में चल रहा है लिखने की कोशिश करती हूँ.
मुझे इन पांचों इन्द्रियों से जो भी अनुभव करने को मिला अच्छा या बुरा ,जैसे खाने को स्वादिष्ट पदार्थ ,पहनने को कीमती वस्त्र ,सुनने को मधुर संगीत,देखने को मोहक दृश्य,सूंघने को सुंदर फूलों की खुशबू.या कहीं से प्रशंसा सुनने को मिली या गालियां सुनने को मिलीं .चोट लग गई या बीमारी आ गई .फटे पुराने कपड़े पहनने को मिले .झगड़े देखने को मिले.बदबूदार जगह रहने को मिले.तो यह सब मेरा कर्मफल ही है.
पर अगर इन सब अनुभवों के होने के समय मैने अपने मन की स्तिथि को ,भावना को अपने वश में रखा तो ये कर्मफल मुझे प्रभावित नही कर पायेंगें .जैसे हम बीमार पड़ते हैं तब दवा खानी पडती है ,तो चुपचाप खा ही लेते हैं,और फिर ठीक हो जाते हैं .वैसे ही कुछ अगर कभी अपशब्द रूपी गाली खानी पड़े तो चुपचाप खा ही लेनी बेहतर है,क्योंकि उससे आगेके लिए सम्बन्ध बेहतर होने के चांस ही अधिक होते हैं .
अच्छे अनुभवों को भी ज्यादा तवज्जो देने की जरूरत नही है वरना उनके लिए और लालसा हो जायेगी ,लालसा से उनके बंधन में पड़ जायेंगें ,और बंधन तो बंधन ही होता है चाहे लोहे का हो या सोने का हो .क्योंकि यह सारी बातें,सारे सुख -दुःख हमारी पाँचों इन्द्रियों तक ही असरकारी होते हैं .हम स्वयं उनसे अलग हैं .